उलझनो को बनाता है,
उलझा हुआ मन ,
इक आग जो लग गई है,
बुझती नहीं है,
ईधन का अनवरत प्रबाह ,
जो कर रहा है,
सहमा हुआ शारीर ,
इतना भी क्या सहमे कि ,
हर आहट के मतलब निकले,
हज़ार ,
सामंजस्य प्रकर्ति से,
दूर -दूर तक नहीं,
छूट मिली मानव को,
अपना सामंजस्य बनाओ ,
उत्कृष्ट प्रस्तुति जो है,
उस सर्वे शक्तिमान कि,
शक्तिहीन कर दिया मानो ,
इस मिली छूट ने,
हर पल में क्या हो,
निश्चित कर लिया मन ने,
घटते -घटते घटती है,
थोड़ी बहुत घटनाये ,
ये धुप ये छाव ,
ये पतझड़ ये बसंत ,
ये आग के दावानल ,
समझा तो सबको है,
साथ सबसे निभाना है।
Thought Turmoils. Hindi poem

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