पल पल भारी होता जा रहा है,
परतो पर परते पड़ती जा रही है,
जैसे की इस भंवर से निकलकर ,
कही कोई बादल उड़ा ले जाये ,
भार जैसे बढ़ता ही जा रहा है,
आँखें मानो पथराने सी लगी है,
भार कम हो तो भी कैसे,
भार जो रोज ओढ़ने में लगा हु,
हवा के साथ बहते जाना है,
पलो में ही जो रम सकू ,
ऎसी कोई जुगत हो जाये ,
हर वकत एक कोलाहल की दस्तक ,
साथी,जैसे वीराने में वेचैनी है,
किसी का साथ बसे मन में ,
जिसके नूर से रोशन हो जाये ,
वीरानो में चांदनी रम जाये ,
पलो से बेगाना होकर बैठा रहू ,
चैन से उस दरख़त के नीचे।
Eterninty. Hindi poem

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