दीदार तो बहुत हुए ,
लम्बी लम्बी लाइनो में लगकर ,
उन बड़े बड़े परदो के अंदर से,
और जब ऑंखें मूंदे चाहे ,
तो भी दीदार हुए ,
एक ऐसा भी जमाना था,
छाप जो छूट जाती थी,
छाप जो रह जाती थी,
वो दौर जैसे गुजर चूका ,
तमन्ना और जगाये ,
मन पर जो बोझ है,
खुद की काया का ,
उस जमे हुए मैल का ,
जो ना जाने अनजाने में,
मन में बैठ गया की ,
मन कही लगता ही नही ,
कि जैसे दर्शन नहीं,
लम्बा विश्राम चाहीये।
Didar to bahut hua… Hindi poem

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