ग्लानि बहुत है,
हर बात की चोट पर,
हर वो चीज जो ,
मुझसे जुडी है,
या मैंने जोड़ ली है ,
सम्बन्ध था या नहीं ,
सम्बन्ध है या नहीं,
कभी कभी तो लगता है,
ये जो आकाश ,
जिसमे अनंत लहरे है,
न जाने कौन सी,
कब कहाँ से आकर ,
मन में झनझनाती हे,
और जो समझ न आये ,
क्या हुवा है उसे ,
क्यों ग़मगीन है,
इंसान ही तो हूँ ,
नाजुकता ज्यादा है शायद ,
पर आधिकार तो है,
कुछ करने का,
जिसे होई न समझे ,
जिसकी निंदा हो,
उनकी तो हर बात की ,
अदा का बयां होता है,
शक्ति नहीं है शायद ,
बहुत कमजोर हूँ ,
जो सदा टुटा ही रहता हूँ,
शायद कभी जुड़ा ही नहीं,
कोई तो होता ,
जो जोड़ देता मुझे,
पर सब ,
तोड़ते ही गये सदा।
Bahut kamjor hu shayad..

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