बनाके बिगाड़ना ही तो
नियती का खेल है
उम्र ज्यादा है किसी की
तो किसी की कम है
कही
आकार का आधार बीज है
तो कही
आकार का आधार हलचल है
रूप बदलते रहते है
ख्वाब बसाये कितने ही
आकार जो बनता है
थोडा टिकता है अंदर में
हलचल ही हलचल है
तीर लगाना निशाने पे
विशवास ही आधार है
आकर निराकार हो जाते है
द्रष्टि जब खो जाती है
बनते बिगड़ते समीकरण
रिश्तो के आकार को
घटाते बढ़ाते रहते है
नये नये आयाम भी
उभरते है समय के साथ
कुछ गुम हो जाते है
समय की धूल में
कुछ संजोते है
साथ ले जाने को
नये आकार में
बिगडके बनेगा जब नया
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