तन्हा है रात
वीरान है समां
बैचनी का आलम है
की ठंडी हवा चली
हिले पन्ने
महक जो दबी थी कही
उडी इस और
की ख्याल आया की
महक है
मंद झोके है
सुने मंजर पर
पर लों ही तो नहीं कही
बुझने लगी है
कि रुक रुक कर
फिरसे उठती है
गिर गिर कर फिर
संभलने की सोचता हु
फिर इक ख्याल
उस रोशनी का
जो बहुत धुंधली हो चली
फिर से उसे जगाना है
उसे महकाना है
उसे जीवन बनाना है
बाहर कुछ भी बदला हो
अन्दर तो वही में हु
जो तब था
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